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प्रिय पाठकों के नाम एक पत्र।

प्रिय पाठकगण, हमारा सप्रेम नमस्कार। आशा करते है आप सब सकुशल और मंगल होंगे और अपनी अपनी जिंदगीओं के धूप छांव तथा हर प्रकार के लम्हों को सराहनीय तरीके से व्यतीत कर रहे होंगे। यूं तो आजकल पत्रों का चलन नहीं रहा पर एक वक़्त था जब ये पत्र चिट्ठी ख़त और जाने किन किन नामों से बुलाए जाने वाले कागज़ के टुकड़े हमारे एहसासों, सवालातों, ख्यालातों, जज़्बातों और दिल में छुपी अनकही अनसुनी बातों को एक अल्फ़ाज़ देते थे, इन्हें एक आवाज़ देते थे एक जरिया थे इनको अपने मुकाम तक पहुंचाने का। हम भी इन्हीं उम्मीदों के साथ एक पत्र आप सबके नाम साझा कर रहे है। एक कोशिश कर रहे है अपनी खामोशियों को एक आवाज़ की शक्ल देकर आप तक पहुंचाने की। खामोशियों की भी अपनी अलग दुनिया है अपनी अलग विडंबना है। खामोशियां वो शब्द है जो दिल के दायरों में छुपे होते है, इनकी अपनी आवाज़ नहीं होती। इन खामोशियों को आवाज़ हमारे अल्फ़ाज़ देते है, इन्हें अपनी पहचान देते है। वो अल्फ़ाज़ जो जुबां पे तो नहीं आ पाते लेकिन दिल की कलम से पन्नों पर कैद हो जाते है। हमारे एहसास, जज़्बात और जिंदगी के छोटे बड़े, हस्ते रोते लम्हें इनमें रंग भरते ह
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तुम और मेरी सबसे अच्छी कविता

मैं तुम्हें अपनी सबसे अच्छी कविता के रूप में अपनी हाथ की रेखाओं पर इंकित करना चाहता हूं, वो जो कल्पनाओं से भी परे हो जिसे आज तक किसी ने भी नहीं गढ़ा हो एक ऐसा काव्य जो संवेदनाओं और संभावनाओं से तुम्हारे और मेरे बीच बंधी प्रेम की डोर को सींचती हो, उनकी जड़ों को गहराई देती हो। वो कविता जो मेरे अधूरे ख्वाबों को तुम्हारे ख्वाबों से बांध कर उन्हें संपूर्णता का बोध देती हो। जो मेरे प्रतिबिंब को तुम्हारे बिंब से जोड़ कर एक आकाश को जन्म देगी, जो हम दोनों को आशियां देगा जहां आशा, उम्मीद और विश्वास की ईटो को एक एक कर जोड़ते जायेंगे हम एक घर बनायेंगे तुम्हारी हंसी से उसमें रंग भर जायेंगे, चटक रंग! जिससे रंगने पर हर एक दीवार गुनगुनाएगी वही कविता जो मैं लिखता रहूंगा रोज थोड़ा थोड़ा, तुम्हारी हथेलियों पर जहां खनक रहे होंगे कंगन तुम्हें देखते हुए। तुम्हारी कोरी पीठ पर अपनी उंगलियों से एक एक शब्द कुरेदते हुए। तुम्हारे पांवों पर जहां पाजेब छनकते हुए उन्हें सुरों से बांध रहे होंगे। तुम्हारे माथे पर अपने होठों से जहां मेरे पूरे जीवन का होगा सार, एक बिंदु पर के

कुछ कहना है तुमसे

सुनो, कुछ कहना है तुमसे क्या, कैसे, कब, नहीं पता मगर फिर भी कुछ कहना है तुमसे। शब्द नहीं है, होंठ भी कुछ कांपते से है मन भी आशंकित सा हुआ जाता है बोलना बहुत कुछ है इसे मगर कहने से डरता भी बहुत है। शायद कुछ उलझा सा हुआ है तुम्हें तुमसा देख कर ये मन, शब्दों में अथाह सागर के बीच भी अतृप्त, आवाक, विचलित रह जाता है वो डूबना चाहता है, तैरना भी पर वो सागर कदम पड़ते ही रेत हुआ जाता है क्यों, कैसे कुछ मालूम नहीं। फिर भी कुछ कहना है तुमसे, मुझे झुमके बहुत पसंद है बाज़ार से खरीदे थे, तुम्हारे लिए जेब में रखे हुए है शायद जो तुम्हें देने तो है लेकिन कैसे, कब, मालूम नहीं, डरता हूं तुमसे नहीं, अपने खुद के साए से। पर फिर सोचता हूं तुम कानों में उन्हें पहन कर जब घर से बाहर निकलोगे और कहीं मेरे सामने आ खड़े होगे और धीरे से अपने बालों को उंगलियों में लपेटकर कर शरमाते हुए कानों के पीछे करोगे, तब मैं वहीं स्तब्ध सा खड़ा होकर तुम्हें देखता रहूंगा, धड़कने थोड़ी रुक जाएंगी कुछ कहना चाहूंगा तुम्हें मगर कुछ बोल नहीं पाऊंगा। होंठ, जो पहले थोड़े कांपते से थे, अब तुम्हारे दुपट्टे क

लंच बॉक्स

जब तुम टिफिन का डब्बा पैक करके मुझसे कहते हो घर जल्दी आना और फिर खुद ही वो टिफिन मेरे बैग के एक कोने में रख देती हो। भूल जाने की मेरी आदत पुरानी है, ये आदत भी तुम्हारी दी हुई है, भूलने के बाद तुम्हारी डांट खाना फिर तुम्हारे चेहरे पर वो फिक्र नजर आना नाराज़गी में छिपा तुम्हारा वो प्रेम मेरे मनाने पर तुम्हरा वो आंखें दिखाना मुझे भूल जाने पर मजबूर करती है। "सॉरी, कल से नहीं भूलूंगा" ये सुन कर तुम मुस्कुरा देती हो, तुम जानती हो कल फिर यही होगा कल मैं फिर कुछ भूलूंगा तुम फिर कल थोड़ा और प्यार शब्दों में कैद करके मुझपर आजाद कर दोगे। और ये सिलसिला यूंही दिन बा दिन चलता रहेगा उस दिन तक जब हम दोनों बैठे होंगे एक आराम कुर्सी पर जो हौले हौले ऊपर नीचे करेगी हमारी यादों की लहरों पर, और हम आंखें मूंदे देख रहे होंगे एक दूसरे को, लहरों पर नाचते हुए चलेंगे हाथ में हाथ थामे एक नए सफर पर दूसरे छोर तक। और वो टिफिन, किनारे पर फैली मखमली रेत पर पड़े एक संदूक के कोने में रखी होगी। इस इंतजार में कि फिर से कोई हम दोनों जैसा उस रेत पर एक आशियां बनाएगा, प्रेम का अंतरद्व

पार्क, बेंच और सुकून के पल

एक पार्क में बैठे थे वो दोनों सर्दियों का मौसम आ चुका था हवा में थोड़ी गर्माहट थी मगर, बेंच पर थोड़ा फासल था दिल में थोड़ा कम था शायद सामने सुकून की चंद घड़ी थी। पीछे कुछ शोर गुल था, पर उस शोर से कोसों दूर थे दोनों एक शांति थी, दोनों साथ बैठे जिसे तलाश रहे थे दिल थोड़े फासले और कम कर रहे थे, पर बेंच की दूरी उतनी ही थी उस फासले में भी दोनों एक दूसरे से बात किए जा रहे थे लफ्ज़ नहीं थे मगर। वो सुकून दोनों की बात सुन रहा था, और दोनों को सुनने पर मजबूर कर रहा था। ऐसा नहीं था दोनों सुनना नहीं चाह रहे थे मगर दोनों के पास कहने को इतना कुछ बाकी था की सुनने का वक्त नहीं था। बीच बीच में आंखें मिलती थी फिर हया के पर्दे बीच में गिर जाते थे नज़रें फिर कुछ पल की जुदाई मांग लेती थी। फिर दोनों सामने, सदियों की गवाही देता एक पीपल के पेड़ को देखते है शायद उसकी फैली हुई जड़ों की तरह एक आशियां बनाना चाहते थे। अभी तो कली खिली थी सिर्फ, वक्त बहुत था दोनों के पास मगर, चाहत की कलियों को सींचने का। कुछ पत्ते गिरते है सूखे हुए, उस सन्नाटे में थोड़ी सिहरन बिखेर जाते है। शाम हो

आशा और अवधारणा के बीच का मन

 आंखें मूंद कर जब बैठते है कुछ लकीरें सी तैरने लगती है कभी ऊपर कभी नीचे  कभी लहरों सी नाचने लगती है कभी टिमटिमाती है, कभी शांत हो जाती है। हाथ की लकीरों की तरह नहीं है ये निष्ठुर, निर्मम, धारा सी स्थिर हर पल स्तब्ध करने वाली। चंचल होती है ये लकीरें, बिल्कुल मन की तरह। मन, जो ग्रसित होता है अवधारणाओं से, जो बंधा होता है आशाओं से। ये उन्हीं अवधारणाओं और आशाओं के बीच कि लकीरें है, जो उन्हें बांधे तो रखती है मगर करीब नहीं आने देती और इसी दायरे के बीच ये लकीरें  नाचती, मचलती, इठलाती है। ये दायरे कभी अथाह सागर जितने  तो कभी सांस और प्राण जितने होते है। मन भी इन्हीं दायरों के बीच भटकता है, जिंदगी ढूंढता है गम की छांव में सिमट जाता है खुशियों का आंचल लिए दौड़ता है थक कर उम्मीदों का आशियां बना सो जाता है। सपनों का पंख बनाता है, उड़ना चाहता है पर दायरों की जंजीर इसे बांधे रखती है। मन फिर लकीरों को पकड़ता है आजाद होना चाहता है उनके सहारे ऊपर नीचे  लहरों सा नाचता है। जब सब शांत हो जाता है, तो एक रौशनी सी नजर आती है, वो किरण पकड़ लेता है, अब मन आजाद है शांत, बिना किसी शोर के अब ना अवधारणा है ना आशा

रात के सन्नाटे

सन्नाटे, लगते शांत है मगर चीखते बहुत है रात के सन्नाटे, सबसे ज्यादा आवाज़ करतें है सुनाई बिल्कुल नहीं देते पर कह इतना कुछ जाते है कि सुनने वाला एक रात में दो चार सदी की जिंदगी उधार मांग कर ले आता है। समुंदर में गोता लगा कर कभी मोती तो कभी कुछ गड़े मुर्दे निकाल लेता है मुर्दे, जिनका इस घड़ी कांटे से कोई मोल भाव नहीं है मगर फिर भी वो मिलों दूर फैली उस रेतेली सतह को जाने कैसे उथला कर देते है फिर पहुंच जाते है सतह पर तैरने लगते है अपना हाथ उठाते है पास बुलाते है सन्नाटे के साए में हम चुपके से एक अंगुली पकड़ लेते है फिर वो मुस्कुराते है और उस समंदर के उथले पानी में पहले एक लहर, फिर दूसरी फिर अलगे पल एक भंवर हम डूबते जाते है सन्नाटे के संग चीखते है जोर जोर से चिल्लाते है मगर वो सन्नाटे है सुनाई नहीं देते, रेतैली जमीन खींचती जाती है हम डूबते जाते है बूंदें कुछ साथ चलती है जो समुंदर के उस खारे पानी में कुछ और नमक घोलती जाती है अब सांस नहीं आती है वो तो सतह पर ही साथ छोर गई थी अब बूंद भी साथ नहीं है सब शांत हो चुका है एक और रात आदमी की शक्ल लिए उसी रेत

परिकल्पना - सफ़र जिंदगी का

हम एक जीवन की कल्पना करते है फिर उस परिकल्पना में रंग भरते है कुछ छोटी कुछ बड़ी आशाएं, कुछ यादें, कुछ बातें, लम्हों कि सौगातें कुछ आकांक्षायें पहलू में समेट लेते है कुछ बस एक काश में ही सिमट जाते है कुछ जिरह, कुछ विरह, कुछ जद्दोजेहद सब मिल कर स्याह बनकर कोरे पन्नों पर कुछ लिखना चाहते है, किरदार सजते है, कुछ किस्से संवरते है कुछ दाग बनकर वहीं रह जाते है। हम खुशियां समेटते है सन्नाटे छाटते है चलते है, भागते है, हांफते है, थक कर दहलीज पर बैठ जाते है सांस लेने की कवायद करते है, लड़ते है एक उम्मीद लिए आसमां में तैरते है एक तिनका पकड़ते है चांद पर बैठ जाते है कभी बादलों से उलझकर गिर जाते है और सागर की गहराइयों में खो जाते है उस शून्य में रंग सारे सफेद हो जाते है पीछे बचती है एक लकीर काले स्याह रंग की, अंधकार समेटे जो जमीं को आसमां से जोड़ती है यादों की बारिश उस लकीर को सिंचती है कुछ टहनियों को जन्म देती है जो एक आखरी सफर को छाव देते है हम चलते जाते है, अकेले उस सफर पर और कल्पनाएं, जिनमें कुछ रंग भरे थे फूल बनकर बिखरते जाते है कांटे जो पावों में छुपे थे, चुभे थे

राजा, प्रजा और किस्सा कुर्सी का

"तुम इस नगर के राजा हो, ये प्रजा तुम्हारी है, तुम्हारे नगर में क्या कुछ हो रहा है इसकी पूर्ण जानकारी तुम्हें होनी चाहिए, राजा को अपने नगर में होने वाली हर गतिविधि पर नज़रें गड़ा कर रखनी चाहिए।" यह सुनते ही मैं खुशी से उछल पड़ा, अरे हां मैं तो राजा हूं, ये मेरी ही तो प्रजा है, ये नगर भी मेरा है, यहां होने वाली हर घटना मेरी नज़रों के समक्ष होनी चाहिए। क्या खूब कही, मुझमें भी शक्तियां है, मैं भी आदेश से सकता हूं, मेरे हर आदेश का पालन करना प्रजा के लिए अनिवार्य है। मैं बुरा बिल्कुल भी नहीं हूं तो कोई ग़लत आदेश या बिना वजह प्रजा को परेशान करना मेरा लक्ष्य नहीं है, मैं तो हर कार्य में अपनी और सबकी भलाई देखता हूं। लेकिन फिर भी राजा होने का आभास अपने आप में अनोखा है। मैं खुद को बहुत ताकतवर समझने लगा था, खुद को सबसे ऊपर देख पा रहा था। ये उल्लास के क्षण थे और मैं इसी उल्लास के आवेश में कुर्सी पर विराजमान हो गया। तभी एक आवाज़ ने मुझे उस क्षणिक आवेश से बाहर निकाला। "अच्छा तो राजा जी थोड़ा बाहर निकल के देखें और पता करें की ये व्यक्ति कहा गायब हो गया है। अभी तो यहीं पर था लेकिन अ

अतीत के पन्नों से

अतीत के पन्नों से निकल आज शायद तुम मुझे जगाने आए हो, नहीं, शायद झकझोरने आए हो, की मैं कहीं जेठ की दुपहरी सा सुनसान, सुन्न, शून्य सा सन्नाटे में खोया हुआ था, सोया हुआ था। नहीं, पर अब मैं तो मैं था ही नहीं शायद उसी दिन से जब तुम ख्वाबों में भी मेरे लिखे खतों का जवाब अपनी खामोशी से लिखने लगे थे वो खामोशी जो आज भी तुम्हारे नाम के ज़िक्र के साथ जिंदा होकर मेरे पास आती है और मुझे एक सन्नाटे में खींच ले जाती है। उस शून्य में जब मैं अपनी परछाई को तराशता हूं तो एक चेहरा उभर आता है जिसे ना तो तुम जान पाए ना कभी मैं पहचान पाया, चेहरा, जो आसमां में फैले अनगिनत सितारों की तरह अपनी चमक का एहसास तो दिलाता रहा मगर अमावस के चांद की रौशनी की तरह उसकी मौजूदगी का कभी अंदेशा तक नहीं हुआ। कभी कभी उस सन्नाटे में, एक तूफान भी उबासी लेता हुआ नींद से जाग जाता है, फिर यादों की नर्म हरी दूब पर सिर्फ तिनकों का एक ढेर बाकी रहता है। अबकी जब सिर्फ उस यादों के सुलगते, तड़पते ढेर में धुएं का एक गुबार बाकी सा है तो जहन में तुम्हारी उधार दी हुई तन्हा, तपिश से तर हुई चंद सांस लिए म

रौशनदान

जब चारदीवारी खड़ी हो रही थी तो उसके हिस्से ऊपर का एक कोना आया, कहा उसे चुपचाप पड़े रहना था। नीचे फैली विविधताओं से दूर, रंग बिरंगी दुनिया से दूर उसे वहीं रहना था। चाहे फर्श मिट्टी से लीपी हो या चमक बिखेरती संगमरमर बिछी हो उसे वहीं से सब देखना था। वह नीचे नहीं आ सकता था, नीचे आते ही उसका वजूद खत्म हो जाता, वह कुछ और बन जाता। नीचे होने से चारदीवारी के भीतर की दुनिया वो बाहर गुजरने वाले सबको दिखा देता। फिर अन्दर वाले उस दुत्कारते और उसपे फिर शीशे की एक परत चढ़ा दी जाती अन्दर की दुनिया छुपाने के लिए। पर वो रौशनदान है इसलिए वो ऊपर है और उसका एक कोने में चुपचाप पड़े रहना ही उसके वजूद को सार्थक करता है। रौशनदान और किरणों के बीच हमेशा से ही एक अनोखा संबंध रहा है। दोनों एक दूसरे के पूरक है। रौशनदान से छन कर आती हुई रौशनी केवल रौशनी नहीं होती है। वो बाहर रौशन करती किरणों से कहीं अलग कहीं दूर क्षितिज में कहीं छुपे हुए उस रौशनी के श्रोत के तेज की तरह उम्मीद के एक शीतल लौ की तरह है। एक अकेले भटकते हुए अंधरे कमरे के लिए रौशनदान भंवर के उस तिनके की तरह है जो हाथ आने पर प्राणों को निचोड़ने वाले उस

तू इश्क़ नहीं मेरा मगर प्यार है तुझसे

तू इश्क़ नहीं मेरा, मगर मुझे प्यार है तुझसे तू चांद नहीं मेरा, मगर मेरी रौशनी है तुझसे तू आसमां भी नहीं मेरा, मगर मेरी हर छाव है तुझसे बेसब्री लिए खोजती है तुझे निगाहें मगर सब्र है कि तेरी परछाई से हाल पूछ लेते है माना मयस्सर तू नहीं है मेरे हिस्से मगर तेरी बातों कि एक किताब सी बुन लेते है सागर से मिलने का एक शौक़ है मुझे मगर मैं वो दरिया नहीं जो लहरों में समा सके माना तेरे बज़्म-ए-हयात में एक लम्हा भर ही हूं मगर उन लम्हों में ही कुछ सदियों सा जी लेता हूं तुझसे मुझसे कुछ यादें जुड़ी है घड़ियों को शाद करती कुछ बातें जुड़ी है कहे अनकहे कुछ अल्फ़ाज़ बिखरे से है मगर वो कलम वो कागज़ नहीं जिनमें समेट सके इनको साज है आवाज़ है, मगर परवाज़ नहीं तू आइना है मेरा, मगर मेरा वजूद नहीं तुझसे तू आदत नहीं मेरी, मगर मेरी ज़रूरत है तुझसे तू इश्क़ नहीं मेरा, मगर मुझे प्यार है तुझसे। Like our page on Facebook Follow us on Instagram

जीने कहां देती है

जीने कहां देती है! ख्वाहिशें एक तेरे संग जीने की एक तेरे बिन मर जाने की। सोने कहां देते हैं! ख्वाब एक तेरे पास आने का एक तुझसे दूर जाने का। रंगीन होने कहां देते है! रंग एक तुझमें भर जाने का एक तुझसे छीन लाने का। टूटती कहां है! उम्मीदें एक तेरे लौट आने की एक तुझे भूल जाने की। सुकून कहां आने देती हैं! यादें एक तेरे संग भीग जाने का एक तेरे बिन भीग जाने का। Like our page on Facebook Follow us on Instagram

एक चिट्ठी अज़ीज़ दोस्त के नाम

मेरे अज़ीज़ दोस्त, मेरे हमकदम, मेरे राजदां। कहते है कि खुदा ने अपनी कमी हर जगह पूरी करने के लिए रिश्तों को बनाया उन्हें हर रंग से सजाया, और इन सभी रिश्तों में दोस्ती को सबसे ख़ास बनाया, इतना ख़ास कि खुद भगवान भी इसे अपने सबसे करीब रखा, फिर चाहे वो राधा रानी हो या फिर सुदामा। खैर मैं अपने आप की तुलना भगवान से तो भूल कर भी नहीं कर सकता, लेकिन मेरे लिए भी दोस्ती का रंग रूप वही है जो उनके लिए था। इस पाक रिश्ते के मायने वही है, इनमें बसा प्यार और एहसास वही है जो भगवान ने राधा और सुदामा में देखा था। तुम सोच रहे होगे हम तो रोज़ ही मिलते और बातें करते है तो फिर ये चिट्ठी तुम्हारे नाम क्यों। चिट्ठियों का भी अपना एक अलग एहसास और मर्म है, जो शायद बातें भी बयां नहीं कर सकती, और फिर ये चिट्ठी हर उन पलों के लिए है जब शायद, शायद किसी वजह से मैं तुम्हारे पास नहीं पहुंच पाऊ, और हर उन पलों में जब तुम मुझे याद करना चाहो अपने पहलू में अपने अंदाज में। ये चिट्ठी हमारे एहसासों को हमारे अंदर हमेशा जिंदा रखेगा, उस उम्मीद को जिंदा रखेगा की तुम्हारे लिए एक रूह हमेशा तुम्हारे पीछे खड़ा है तुम्हें ऊंचा उठाए र

मैं कुछ नहीं, मैं कोई नहीं

मैं कुछ नहीं, मैं कोई नहीं आरज़ू नहीं, कोई आबरू नहीं चमक नहीं, मैं फलक भी नहीं, दिल नहीं, मुझमें जां भी नहीं, साया नहीं, कोई साथी नहीं मैं कुछ नहीं, मैं कोई नहीं। सुबह नहीं, अब शाम नहीं सच नहीं ना कोई जूठ नई दिन भी वहीं रातें वहीं सांस वहीं, पर बातें नहीं मैं कुछ नहीं, मैं कोई नहीं। आगाज़ नहीं, अंज़ाम नहीं मैं शब्द नहीं कोई आवाज़ नहीं, किस्से नहीं, कहानी नहीं किरदार वही पर राज़ नहीं मैं कुछ नहीं मैं कोई नहीं। मैं गंगा नहीं, यमुना भी नहीं, पाप वही, अब पुण्य नहीं तीर्थ नहीं, कोई धाम नहीं पर्वत वही, पर हिमालय नहीं मैं कुछ नहीं, मैं कोई नहीं। दुश्मन नहीं पर दोस्त वही, मैं फिज़ा नहीं, रूत भी नहीं, अपना नहीं, ना गैर सही मंज़िल वही मैं रस्ता नहीं मैं कुछ नहीं मैं कोई नहीं। मैं पूरब नहीं पश्चिम नहीं सूरज वही, मैं दिशा नहीं मैं मिला नहीं, भटका भी नहीं आदमी वही कोई मुखौटा नहीं मैं कुछ नहीं, मैं कोई नहीं। Like our page on Facebook Follow us on Instagram

नींव और रिश्तों के मायने

नींव क्या है? इसका वजूद क्या है? क्या महत्व है इसका? इसका अपने जीवन में क्या मायने है? देखने में तो बहुत ही छोटी चीज़ लगती है लेकिन जितनी छोटी है उतनी ही ज़रूरी भी है। इस नींव के बहुत रूप है, और सबके अपने अपने नजरिए है इसे देखने के, हमने भी एक छोटी से कोशिश की है इसे समझने की और इसे एक अपना रूप देने की। एक घर की मज़बूती उसकी नींव ही तय करती है, बिना एक मज़बूत नींव के एक सुदृढ़ घर की कल्पना करना ही बेकार है। एक बड़ी इमारत के बनने में सबसे ज्यादा वक़्त उसकी नींव तैयार करने में लगता है क्यूंकि बिना एक मजबूत नींव के इमारत खड़ी होना ही नामुमकिन है और अगर किसी तरह खड़ी भी हो गई तो आज नहीं तो कल उसका गिरना तय ही है। ठीक इसी तरह एक मजबूत रिश्ते के लिए उतनी ही मजबूत नींव की ज़रूरत होती है। कैसा भी रिश्ता हो अगर उसकी बुनियाद खोखली और नींव कमज़ोर है तो वो कभी एक सुनहरी सुबह नहीं देख पाती। ऐसे रिश्ते बस पूस के बादल की तरह होते है, दिखावटी, बिना पानी की एक भी बूंद के, बस वहां होने भर का एहसास कराती है लेकिन उनके पास देने को कुछ नहीं होता। रिश्ता चाहे प्यार का हो, दोस्ती का हो, भाई बहन का हो, मा

उम्मीद की, हौसलों की उड़ान

उड़ने दो मुझे, ये मेरी उड़ान है दस्तक देते पल नए ये मेरे आने वाले कल की सौगात है उम्मीद की ये मेरे हौसले की उड़ान है रोको नहीं कदमों को बढ़ने दो टोको नहीं अरमानों को बढ़ने दो सपनों ने अभी बस आंखे ही खोली है इनके पंखों को भी उड़ान भरने दो जरूरी नहीं हम दुनिया के बने बनाए आदर्शों पर ही चले हमें भी अपनी राह चुनने दो अभी से हमें बड़ा ना करो थोड़ा बचपन हममें अभी रहने दो इस भीड़ में एक दिन तो सबको खोना ही है अभी थोड़ा शोर को जीने दो छोटी छोटी मस्तियां और शरारतों कि ये मेरे लम्हों की यादों की उड़ान है उम्मीद की ये मेरे हौसलों की उड़ान है लपक सितारे ले आएंगे हम चांद पर भी हो आएंगे वक़्त की मशीन बना हम ब्रह्मांड के कोनों को भी नाप आएंगे बस हमारी सोच को साथ हमारे बढ़ने, मचलने और खेलने दो इसे भी साथ हमारे चलने दो। दुनिया में एब बहुत है तरक्की की राहें भी कम नहीं है मत बढ़ाओ हमें भी उन राहों पे बस एक अच्छा इंसान बनने दो। राह अपने आप बन जाएंगे जब कदम नहीं डगमगाएंगे हिमालय की चोटी पर जाकर अपना परचम हम लहराएंगे बस मेरे भी एहसासों को कुछ रंग नए भरने दो। गिरकर उठना

दो दिल एक कहानी

मुझमें और तुममें काबिलियत है एक बहुत ख़ास दोस्त बनने की एक ऐसा दोस्त जो सिर्फ अपने नाम से नहीं, बल्कि एक दूसरे के नाम से पहचाने जाते है एक ऐसा दोस्त जो जिंदगी के हर धूप छांव में साथ खड़े रहते है हर तूफ़ान में भी चट्टान से डटे रहते है एक ऐसा हमकदम जो एकांत की उदासिओं को दोस्ती की चमक से रोशन कर देते है एक ऐसा साथी जो खुद भी ऊंचा उठता है और दूसरे का नाम भी फलक के दायरों में लिखता है। हां हममें काबिलियत है एक अदद दोस्त बनने की पर ये काबिलियत यूं ही नहीं है ये शायद तुम भी जानते हो। हमारे नाम अलग है पर सोच वही है बातें अलग है पर किस्से वही है हमारे जिस्म अलग है पर उनमें बसी रूह की तासीर वही है हमारी मंजिलें अलग है पर रास्ता वही कारवां भी वही है दिलों कि धड़कने अलग है पर उनके दायरों में बिखरी यादें वही है हम ख्वाबिदा नहीं है, पर ख्वाब एक से देखते है। राजदां भी नहीं है, मगर राज़ एक से रखते है। हममें काबिलियत है एक दूसरे को ऊंचा उठाने की अपनी मंजिलों को पास लाने की क्यूंकि हमारे बीच दिल, रूह और हस्ती को तोड़ने वाली इश्क़ की दीवार नहीं है हमारे बीच इकरार न